11.10.2020 Fourth Point
जब भारत का संविधान बना था तो संविधान सभा के सामने एक यक्ष प्रश्न था कि संविधान का स्वरुप एकात्मक (Union) हो या संघात्मक (Federal) हो या फिर कोई बीच का रास्ता अपनाया जाये जिसमें एकात्मक और संघात्मक दोनों की आत्मा आ जाये। संविधान निर्माता स्वतंत्र भारत के लिए ऐसा संविधान चाहते थे जो कहने को तो एकात्मक हो पर कार्यशैली में वह संघात्मक हो। भारतीय संविधान के प्रारंभिक प्रारूप में जब यह विमर्श के लिए संविधान सभा के सामने आया तो इसमें जिस भारत की कल्पना की गयी थी उसमें भारत एक “राज्यों का संघ” (Federation of States) होगा अथवा संघात्मक स्वरुप में होगा। यह कल्पना अमरीकी संविधान पर आधारित थी। जैसे जैसे यह विमर्श आगे बढ़ा तो इस बात पर आम सहमति बन गयी कि भारत को राज्यों का संघ/जोड़ (Union of States) रखना ही उचित होगा न कि फेडरशन ऑफ़ स्टेट्स। फाइनल ड्राफ्ट में यह एक महत्वपूर्ण बदलाव था। जब फेडरेशन की जगन यूनियन शब्द को लाया गया तो बाबा साहेब आंबेडकर जिन्हें संविधान का निर्माता कहा जाता है, से पूछा गया कि क्या यह बदलाव अपने आप में बहुत ही महत्वपूर्ण बदलाव नहीं है तो इस पर बाबा साहेब ने कहा था कि बदलाव केवल शब्द में हैं पर संविधान की आत्मा संघात्मक ही है। शायद बाबा साहेब यह समझते थे कि भारत के आने वाले कर्णधार बुद्धिमान होंगे और देश के लिए हमेशा त्याग की भावना से राजनीति में आएंगे और देशहित में सही निर्णय लेंगे।
बाबा साहेब की यह सोच अल्पकालीन ही रही और धीरे धीरे भारतीय राजनीति के पटल पर नेताओं की एक ऐसी जमात उभरी जिसने संविधान की जम कर धज़्ज़ियाँ उड़ाई। १९६२ में ही सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक ७ जजों की बेंच में जो फैसला ६-१ से दिया उसने यह बात साफ हो गयी कि भारत एक संघात्मक देश नहीं है। इसका एक कारण यह गिनाया गया कि संविधान में कहीं भी फेडरेशन शब्द का इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस फैसले ने बाबा साहेब आंबेडकर की सोच को सिरे से ही ख़ारिज कर दिया। जिस बात का डर था कि आने वाली नस्लें सिर्फ शब्द को पकड़ कर बैठ जाएंगी वह सच साबित हुई। जिस सार अथवा आत्मा की बात बाबासाहेब ने की थी वह सब बुद्धिमान लोगों की मूलजगह/सोच से ही नदारद हो गयी थी।
१९७३ में केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट की १३ जजीय बेंच ने ७-६ के बहुमत से एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया जिसे भारत के इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। इस फैसले में बाबासाहेब की सोच को फिर से पुनर्स्थापित किया गया और कहा गया कि भले ही फेडरेशन शब्द भारत के संविधान में न हो पर उसकी आत्मा फ़ेडरल चरित्र में ही है और फेडरलिस्म, संघीय ढांचा, ही भारतीय संविधान की मूल आत्मा है।
ज्यादा पीछे न जाते हुए अगर आज के सन्दर्भ में देखें तो पाएंगे कि संसद में हाल ही में कई ऐसे बिल पेश किये गए जो अपने आप में कई विवादों को लेकर आये हैं । किसानों के बिल, मजदूरों के बिल तथा अन्य कई बिल संसद में जिस प्रकार बिना बहस से पास करवाए गए वह भारत की संसद की कार्यशैली पर प्रश्न उठाते हैं। जिस प्रकार से बाबासाहब की सोच की यहाँ धज्जियां उड़ाई गयी वह वास्तव में शर्मनाक है। किसानों और मजदूरों के मुद्दों पर राज्यों से कोई सलाह नहीं ली गयी जबकि कृषि मुख्यता राज्यों का विषय है पर एक प्रकार से उन्हें केंद्र के द्वारा हाशिये पर धकेल दिया गया है।
भारत के संघीय ढाँचे पर असली प्रहार केंद्र के द्वारा जीएसटी के मुद्दे पर किया गया। जिस प्रकार से संघीय ढाँचे की व्यवस्था को तार तार किया गया और केंद्र ने जीएसटी कंपन्सैशन सेस के विषय पर हाथ खड़े कर दिए और अपनी और से २ विकल्प राज्यों को दे दिए, उस पर कई प्रश्न उठते हैं । इन विषयों पर पर राज्यों से कोई बात नहीं हुई और न ही उनकी कोई सहमति ली गयी। जीएसटी कौंसिल की मीटिंग में १० राज्यों ने केंद्र के विकल्पों के खिलाफ खुला विद्रोह किया और केंद्र को इस बात पर मजबूर किया कि वह अपने विकल्पों पर पुनर्विचार करे। केंद्र के द्वारा राज्यों के अधिकारों के हनन इस मुद्दे पर साफ झलकते हैं। दरअसल भारत के संघीय ढांचे की यह सबसे बड़ी परीक्षा की घड़ी है। यहाँ अगर यह मुद्दा और आगे बढ़ता है तो इस से देश की एकता पर भी फ़र्क़ पड़ेगा और राज्य इस बात पर प्रश्न उठाएंगे कि जब उन्होंने अपने कर संग्रह के अधिकारों को केंद्र के आश्वसान के बाद केंद्र को सौंप दिया था तो अब उसमें किसी भी किस्म का बदलाव देश के संघीय ढांचे और परस्पर विश्वास पर कड़ा प्रहार होगा।
फिलहाल केंद्र इस नाज़ुक स्थिति को बहुत ही हलके में ले रही है और इसके परिणाम बहुत खतरनाक भी हो सकते हैं। देश की एकता को ध्यान में रखते हुए केंद्र को अपने रवैय्ये में तुरंत बदलाव करना होगा और राज्यों से टकराव की स्थिति को टालना होगा। यहाँ किसी भी प्रकार की हठधर्मी देश के लिए बहुत ही घातक साबित होगी। राज्य देश का अभिन्न अंग हैं और उनके अधिकारों और उनके करों के हिस्से को न देना देश के विकास कार्यों को चोट पहुंचाना होगा। केंद्र इस बात को जितना जल्दी समझ जाए तो अच्छा है वरना पंजाब जैसी स्थिति पूरे देश में हमें देखने को मिल सकती हैं। देश के संघीय ढांचे की जिसकी कल्पना बाबासाहेब ने की थी उसकी मूल आत्मा की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी पूर्णतः केंद्र की है। यहाँ केंद्र को देखना होगा कि ज़िद्द ज़िद्द में कुछ ऐसा न हो जाये जिस पर संविधान के निर्माताओं को शर्मसार होना पड़े।
डॉ सुषमा गजापुरे ’सुदिव’ / दिनेश कुमार वोहरा
(स्तम्भ लेखक वैज्ञानिक,आर्थिक और समसामयिक विषयों पर चिंतक और विचारक है )
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