FOURTH POINT – HINDI – 28.09.2020
पिछले कुछ सप्ताह से देश में कुछ ऐसे घटनाक्रम चल रहे हैं जहाँ ऐसा प्रतीत हो रहा है कि सत्तारूढ़ पार्टी का इस देश के जन-मानस से कुछ लेना देना ही नहीं रह गया है। सभी राजनैतिक दल बस अपनी-अपनी रोटियाँ सेंकने में लगे हैं। लगता है जैसे आम जनता लोकतंत्र की हर प्रक्रिया में हाशिये पर चली गयी है। लोकतन्त्र में लोक का कोई रोल ही नहीं है। किसानों का मसला हो, बेरोज़गारी पर बात करनी हो या फिर राज्यों के द्वारा जी एस टी के नुक़सान की भरपाई हो, हर स्थान पर केंद्र सरकार अपने हाथ खींचते हुए नज़र आ रही है। एक प्रभावी संवाद की कड़ी कमज़ोर हो रही हैं और हर जगह संशय और भ्रम की स्थितियां पैदा हो रही हैं। केंद्र और राज्यों के बीच विभिन्न मुद्दों पर समन्वय लगभग समाप्त होता नज़र आ रहा है और टकराव की स्थितियाँ बनती जा रही हैं।
देश का आम नागरिक आज असहाय होकर सरकार की ओर देख रहा है पर सरकार की तरफ से कोरोना-काल में उसे कोई आश्वासन मिलता नज़र नहीं आ रहा है। आज जब हर कामकाजी इंसान एक प्रकार की आर्थिक विभीषिका से जूझ रहा है तो उसे सरकार से यह उम्मीद बंधती है कि ऐसे संकटकाल में वह उनकी कोई मदद करेगी पर गरीबों के एक वर्ग के लिए मात्र ५ किलो मुफ्त अनाज के अलावा किसी भी प्रकार की कोई राहत सरकार के द्वारा घोषित नहीं की जा रही है। मध्यम वर्ग का हाल तो पूछिये ही नहीं। पिछले कुछ दिनों से उम्मीद की जा रही है कि ब्याज के ऊपर ब्याज मुद्दे पर सरकार मध्यम वर्ग को कुछ राहत देगी पर वहाँ भी सरकार बैंकों पर बढ़ते बोझ का रोना रोकर मुद्दे को टालना चाहती है। इन हालातों में आम नागरिक से यह उम्मीद करना कि वह एक बार फिर आर्थिक रूप से अपने सहारे ही खड़ा हो जाये जिसे आत्मनिर्भर कहा जाता है, वह इतना आसान नहीं लगता है। दरअसल आम नागरिक को संकट काल में सरकार और उसके निर्णयों से केवल और केवल निराशा ही हुई है। कड़े लॉक डाउन ने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है और अब वह असहाय होकर ईश्वर की ओर देख रहा है कि शायद वहाँ से कोई मदद मिल जाए।
राज्य-राज्य कृषि बिलों के खिलाफ किसानों का रोष अपनी जगह पर उचित है। केंद्र से कोई भी मंत्री आगे आकर किसानों से बातचीत करने को तैयार नहीं है। हाँ, टेलीविज़न चैनल्स पर आकर बड़े-बड़े आश्वासन दिए जा रहे हैं पर किसानों को उन आश्वासनों पर विश्वास होता नज़र नहीं आ रहा है। उधर सरकार ने टकराहट की गर्माहट की स्थितियों में संसद में कृषि से सम्बंधित तीनों बिलों को दोनों सदनों में पारित करवा लिया । इससे तो अब किसानों में रोष और अधिक बढ़ गया है। हकीकत यह है कि सरकार ने किसी भी किसान संगठन से कोई विचार-विमर्श नहीं किया और एक तरफ़ा पद्धति अपना कर बिलों को सदन में पारित करवा लिया। इसी मुद्दे पर राज्यसभा में अच्छा-खासा हंगामा हुआ और और विपक्ष के ८ सांसदों को निलंबित कर दिया। इस बात पर समूचे विपक्ष ने दोनों सदनों से सम्पूर्ण बायकाट किया। सरकार ने यहाँ भी अनुपस्थित विपक्ष का फायदा उठा कर आनन्-फानन में मात्र ३ घंटे में ७ महत्वपूर्ण बिल बिना किसी बहस अथवा चर्चा के पारित करवा लिए। यह एक प्रकार से लोकतंत्र की परम्पराओं पर कड़ा आघात है। ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार हर प्रकार से संवाद से अब बचना चाहती है। प्रधानमन्त्री वैसे भी किसी प्रश्न का कोई उत्तर नहीं देते और अब अंतिम उम्मीद संसद भी उसी परिपाटी पर चल पड़ी हैं जहाँ पर उसने ज़्यादातर विपक्ष के सांसदों के प्रश्नों के जवाब “आंकड़े उपलब्ध नहीं है” कह कर अपना पल्ला झाड़ लिया।
किसानों के अलावा बेरोज़गारों का गुस्सा ज्वालामुखी की तरह उबल रहा है पर सरकार आँखें मूंदे हुई है। न कोई संवाद, न कोई आश्वासन, न ही किसी मीडिया में इन पर चर्चा। आज हमारा देश सच में एक अनावश्यक और गूढ संवादहीनता की स्थिति में प्रवेश कर गया है। यहाँ अब कोई किसी की व्यथा के प्रति उत्तरदायी नहीं है। भाजपा सरकार अपनी असफलता को सुनहरे भाषणों/आश्वासनों और कोरोना की विभीषिका से ढकना चाहती है। अर्थव्यवस्था वैसे भी आई सी यू में पड़ी हुई है और कहीं कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही है। जी एस टी के सवाल पर राज्यों की केंद्र से ठन गयी है और आने वाली बैठक में इस मुद्दे पर भी काफी तनातनी होने की उम्मीद है। केंद्र के द्वारा अपनी संवैधानिक ज़िम्मेदारी से अपने हाथ खींचने से राज्य परेशान हैं पर ऐसी टकराव की स्थितियाँ देश के लिए घातक सिद्ध होंगी। इन जर्जर आर्थिक हालातों में आम नागरिक अब क्या करे यह एक यक्ष प्रश्न बन गया है।
एक बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि सरकार जितना इन परिस्थितियों से बचने की कोशिश कर रही है, उतनी ही वह इस चक्रव्यूह में फंसती जा रही है । सभी आर्थिक विशेषज्ञ अब खुले रूप से सरकार से कह रहे हैं कि जल्दी से जल्दी कोई नया प्रभावी पैकेज लाया जाए, अन्यथा सभी आर्थिक व्यवस्थाएँ और अधिक गहरे संकट में आ जाएँगी। देश अब एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है जहाँ उसे जनता के हित में कुछ बड़े फैसले करने होंगे वरना बहुत देर हो जाएगी।
डॉ सुषमा गजापुरे ’सुदिव’ / दिनेश कुमार वोहरा
(स्तम्भ लेखक वैज्ञानिक, आर्थिक और समसामयिक विषयों पर चिंतक और विचारक है )
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