Published on 24.06.2018 in Navbharat (Hindi)
मानव जीवन बहुमूल्य है लेकिन सृष्टि अनमोल है, मानव और सृष्टि एक दूसरे के पूरक है। सृष्टि के पाँच तत्वों में जल सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। जल प्राकृतिक संसाधन का मुख्य तत्व है। किन्तु यह भी सत्य है कि इन 5 तत्वों में जल ही ऐसा तत्व है जो बहुत सीमित मात्रा में है। पृथ्वी पर उपस्थित कुल जल संसाधनों में से केवल 1% जल ही पीने योग्य है, शेष जल खारा है या पीने के योग्य नहीं है। इतिहास में देखा जाए तो हमारी सभ्यता का विकास भी जल स्त्रोत के आसपास ही हुआ हैं। चाहे वह नदियों के तट हो या किसी झील के आसपास। जैसे–जैसे सभ्यताएं विकसित हुई और जीवन आगे बढ़ता गया जल संकट हमारे सामने विकराल होते गया। बढ़ती जनसंख्या को अधिक जल की आवश्यकता हुई। शहर बस्तियाँ विकसित हुई और रहने के लिए जंगल काटे गये और यहीं से प्रारम्भ हुई जल संकट की समस्या। जैसे–जैसे आबादी बढ़ती गयी, वृक्ष कटते गए और इसका परिणाम पर्यावरण का असंतुलित होना हैं। ही हाल ही में देश के कई भागों में सूखे और बाढ़ की समस्या विकराल हो गयी है। ग्रामीण अंचलों में लोग कई–कई मील चल कर जल भर कर लाते हैं और शहरों में पानी का टैंकर आते ही पानी की मारामारी भी हमसे छुपी नहीं है। भारत का मुख्य जल स्त्रोत माने जानेवाले सदाबहार ग्लेशियर भी अब सिकुड़ने जा रहें हैं।
हकीकत यह है कि जो हमें मुफ्त में मिलता है, उसका महत्व नहीं होता, जल के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। प्रकृति ने हमें जल तो प्रचुर मात्रा में दिया लेकिन हमने उसका संरक्षण नहीं किया, बल्कि उसका इतना दोहन किया कि आज जल संकट हमारे सामने विकराल रूप में उपस्थित है। हाल ही में नीति आयोग द्वारा जारी ‘समग्र जल प्रबंधन सूचकांक’ के आधार पर देश इस समय जल संकट के सबसे बुरे दौर से गुजर रहा है। आयोग की रिपोर्ट के आधार पर 60 करोड़ लोग जल संकट से गुजर रहें हैं। 2 लाख लोगों की मृत्यु केवल दूषित जल पीने से हुई हैं। भारत के 21 शहर जिनमें दिल्ली, बैंगलोर, चेन्नई और हैदराबाद जैसे शहरों में अत्यधिक जल दोहन के कारण जल स्तर 2020 तक बिलकुल समाप्त हो जाएगा। यहाँ ध्यान देने योग्य बात ये है कि 1951 में भारत में प्रति व्यक्ति पानी उपलब्धता 5177 क्यूबिक मीटर थी,जो की 2011 में मात्र 1545 क्यूबिक मीटर ही रह गयी। अनुमान है कि 2025 में घटकर 1340 और 2050 की स्थिति तो 1140 या उससे भी नीचे हो सकती है। यदि ऐसे ही चलता रहेगा तो आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारा जीडीपी 2050 तक लगभग 6% कम हो जाएगा और इसका सीधा असर भारतीय अर्थ व्यवस्था पर पड़ना ही है। केंद्रीय भूजल बोर्ड के सर्वेक्षण के आधार पर 20 सेंटीमीटर प्रतिवर्ष की दर से भूजल स्तर गिर रहा है।
मनुष्य के साथ–साथ पृथ्वी पर रहनेवाले जीव–जन्तु, प्राणी, पेड़–पौधे सभी जल पर निर्भर हैं, किन्तु हम कभी भी जल की उपलब्धता और उपयोगिता का महत्व नहीं जान सकें। वैसे भी बढ़ते औद्योगीकरण से नदियों का जल अधिकाधिक दूषित होते जा रहा हैं। स्वतन्त्रता के बाद से अब तक जल संग्रहण, जल संवर्धन, जल संरक्षण हेतु कोई भी ठोस नीति नहीं आयीं हैं और न ही हम भारतीयों में जल संकट के लिए कोई जागरूकता आई है।
ये भी सच है कि पर्यावरण असंतुलन की वजह से प्रति वर्ष वर्षा का औसत घट रहा है और बढ़ती जनसंख्या के कारण जल की मांग भी बढ़ रही है। रिपोर्ट के अनुसार 60 करोड़ लोग जल की गंभीर किल्लत से जूझ रहें हैं। दरअसल जल संकट रोका जा सकता है लेकिन पहले कावेरी जल विवाद जैसे विवादों का स्थायी समाधान ढूँढना होगा, जल की बचत, संवर्धन, जल प्रबंधन जैसे कुछ कदम को महत्व देना होगा जिससे कृषि आमदनी बढ़ें और गाँव छोड़कर आए लोग पुनः गाँव में बस कर कृषि कार्य करें जिससे शहरों पर अतिरिक्त बोझ न पड़े। जंगलों को काटने के कारण वर्षा का जल भूमि में जा ही नहीं पाता और सारा पानी सागर में बह जाता हैं। इसके लिए वर्षा के जल का विशेष रूप से संचयन, जिसमें डैम बनाए जाए, गांवों में तालाब बनाए जाएँ, नदियों को दूषित होने से बचाया जाएँ और सबसे महत्वपूर्ण कार्य है कि जितना अधिक हो सके पेड़ पौधे लगाए जाएँ जिससे कि भूमि में जल का स्तर बढ़ें और अंततः सभी भारतीयों को जागरूक होने की आवश्यकता हैं कि वें जल का दुरुपयोग न करें और जल की महत्ता को जानते हुये उसका उपयोग करें क्योंकि जल है तो कल है।
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