अभी कुछ दिन पहले ही भारतवर्ष की राजधानी दिल्ली में प्रदूषण का ‘आपातकाल’ घोषित किया गया। उत्तर भारत के कई शहरों में धुंए के अलावा कुछ नज़र नहीं आ रहा है। लोगों को सांस लेने में तकलीफ हो रही है और स्कूल जाने वाले बच्चे बहुत ही परेशान हैं। ऐसे समय मन में यह विचार आ ही जाता है कि हमारी जागरूकता को यह कैसा जंग लग गया है? ये हम कैसा भारत देश की अगली पीढ़ी को विरासत में दे रहें हैं, इस बारे में शायद अब कोई नहीं सोचता न ही सोचना चाहता है। जब प्रदूषण ‘आपातकालीन’ स्तर पर आ जाता है, तब हम अचानक नींद से जाग कर समाधानों की तलाश में निकलते है। दरअसल हम समस्या की प्रतीक्षा करते है कि कुछ अनहोनी हो फिर हम समाधान के बारे में सोचेंगे। हमारे बच्चे, हमारे बुजुर्ग, हमारे बीमार परिजन और हम स्वयं भी इसी प्रदूषण के दलदल में फँसते जा रहें है और फिर चलता है एक अंतहीन बहस, चर्चाओं का दौर। एक-दूसरे पर आरोप मढ़ने से फुर्सत मिले तो इस देश में बढ़ते प्रदूषण की बात हो।
आज केवल भारत ही नहीं, समस्त विश्व एक दिशाहीन विकास की ओर भाग रहा है। भागते-भागते वह हाँफ जाता है और रूक कर सांस लेना चाहता है लेकिन दुख की बात यह है कि वह शुद्ध सांस भी नहीं ले पाता। यह कैसी अंधी दौड़ है, जिसमें भागते-भागते हम ये भी भूल जाते है कि हम विकास की इस दिशाहीन दौड़ में अपने ही लिए एक प्रदूषित वातावरण निर्मित किए जा रहें हैं। विकास का हवाला दे-दे कर हम लगातार वन-क्षेत्रों की ऐसी कटाई कर रहें हैं, जैसे कि ये विकास हमारे पर्यावरण से ज्यादा आवश्यक है। पर्यावरण का संतुलन बड़ी मात्रा में बिगड़ चुका है। वन्य प्राणी और अन्य जीव अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जंगल छोड़ कर मानवीय बस्तियों की ओर रुख कर रहें है और हम हाय-तौबा मचा रहें हैं कि हाय! ये तो जंगल छोड़कर हमारे बस्तियों में आ कर हमारे लिए खतरा बन गए हैं ।
वनों के काटने से कई तरह की प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ता है। बाढ़, अकाल, भू-स्खलन, अति-वृष्टि ये सब घटते वनों के ही परिणाम है। कुछ विद्वान (?) लोग यह सलाह देते हैं कि यदि देश के विकास के लिए कुछ वृक्ष काट दिये तो क्या, हम कहीं दूसरी जगह और वृक्ष लगा देंगे। इन विद्वानों को कोई यह समझाएँ कि पुराने वृक्ष जितनी ऑक्सीज़न देते हैं क्या नए छोटे पेड़ वो देंगे? क्या वो बड़े और पुराने वृक्षों की तरह पर्यावरण की वायु को संतुलित कर पाएंगे ? उन नए पौधों को बड़ा होने में जितना वक़्त लगेगा उतने में तो न जाने कितना प्रदूषण हो जाएगा। अभी वर्तमान में ही मुंबई के आरे वन-क्षेत्र में जिस तरह रातों-रात 2500 वृक्ष काटे गए उसकी भरपाई कैसे होगी, इसका जवाब किसके पास है? मुंबई के फेंफड़े भी विकास करने वालों को रास नहीं आए। उनका ऑक्सीज़न भी मेट्रो स्टेशन की भेंट चढ़ गया।
दिल्ली में चारों ओर धुआँ ही धुआँ, मुंह पर मास्क लगाए दिल्लीवासी क्या इसके लिए जिम्मेदार नहीं है? दिल्ली देश की राजधानी है इसलिए वहाँ की जनसंख्या भी ज्यादा है, ज्यादा जनसंख्या अर्थात ज्यादा वाहन, ज्यादा धुआँ, ज्यादा कार्बन-डाई-ऑक्साइड के साथ-साथ और भी कई जहरीली गैस सभी दिल्लीवासियों के सांस के साथ शरीर के अंदर जा रहीं है। थर्मल पावर भी प्रदूषण का बड़ा कारण है। ऊपर से हरियाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश के किसान इतने हृदयहीन हो गए कि उन्हें अपने भारतवासियों की परवाह ही नहीं? क्या पराली जलाने के अलावा और कोई अन्य विकल्प ही नहीं था? हम क्यों इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि अपने ही भारतवासियों के बारे में सोचना ही नहीं चाहते? आज दिल्ली में नए वाहनों की बिक्री पर रोक लगाना जरूरी हो गया है। सीएनजी भी एक अच्छा विकल्प है। किन्तु निर्माण कार्य से भी प्रदूषण बहुत हो रहा है। ऐसे में नए निर्माण कार्यों पर भी रोक लगाना अनिवार्य हो गया है।
बढ़ती जनसंख्या को रहने के लिए ज्यादा जगह चाहिए, शहरों का विकास, मेट्रो के जाल, बढ़ता खनन-कार्य, औद्योगीकरण, लकड़ी की तस्करी, आदि ऐसी कई समस्याएँ है जिनके लिए बड़े-बड़े वन-क्षेत्र बली चढ़ा दिये जाते है। पर्यावरण असंतुलन के इस अघोषित आपातकाल ने हम सभी पृथ्वीवासियों को चकित कर दिया है। क्योंकि हम इस मानव रचित वायु प्रदूषण के लिए मानसिक रूप से तैयार ही नहीं थे।
प्रति वर्ष राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण के द्वारा कई शहरों में पेड़ काटने के नियमों का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्यवाही की गयी है तथा चेतावनी भी दी गयी लेकिन विकास का ढ़ोल बजा-बजा कर हम आज अपने ही लिए मुश्किल खड़ी कर रहें हैं। हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट सबकी ओर से फटकार मिलने के बाद भी यदि इसी तरह विकास के नाम पर वन-क्षेत्र कटते जाएंगे तो फिर प्रदूषण के इस जहर से न हम, न हमारी आने वाली पीढ़ियाँ बच पाएगी। शायद फिर इतिहास और भूगोल के कुछ कड़वे और शर्मनाक अध्याय लिखे जाएंगे, जो हमारी आने वाली पीढ़ी को यह बताएगी कि उनके पूर्वजों ने किस तरह पर्यावरण का शोषण किया, किस तरह अपने स्वार्थ के लिए मूक पेड़-पौधे और वन्य-प्राणियों से उनका बसेरा छिन लिया। किस तरह हमारी अमूल्य धरोहर नदियां, पर्वत, वन, सब का नक्शा ही हमने बदल डाला। कहीं हमें यह दिन न देखना पड़े जब स्वच्छ वायु में खुली और मुक्त सांस लेने के लिए भी हमें पैसे देने पड़े, जैसे कि पानी के लिए तो आज हम कीमत चुका ही रहें हैं। समय रहते हम सबको जागरूक होना पड़ेगा और जागरूकता फैलानी ही होगी अन्यथा यह समस्त भारत वर्ष दिल्ली न बन जाएँ और हम सब एक दूसरे को पहचान न पाएँ क्योंकि हम सबके चेहरे मास्क से छुपे होंगे। क्या यही विकास है?
Wow!!!
Bahut hi sunder lekh Didi