Fourth Point Delhi 03.09.2020
शिक्षा किसी भी देश की प्रगति और विकास की दिशा तय करती है। शिक्षा के स्तर से ही देश की उन्नति का स्तर जाना जा सकता है। इन दिनों भारतवर्ष की शिक्षा नीति के कई दोष एवं कई उलटफेर भी सामने आए हैं। काफी वर्षों से आम जनता के बीच और विशेषतः छात्रों के बीच इन नीतियों के प्रति बहुत रोष भी दिखाई दे रहा था।
इसी क्रम में सरकार द्वारा अभी हाल ही में नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट पेश कर दिया है। वैसे तो नई शिक्षा नीति कागजों पर एक आदर्श नीति दिखाई दे रही हैं, जिसमें पहली नज़र में कमियों को ढूँढना बहुत कठिन है किन्तु जैसे-जैसे हम इस ड्राफ्ट की गहराई में जाते हैं तो इसमें समाहित कमियाँ एक-एक कर सामने आने लगती है। इस ड्राफ्ट के अनुसार में भारत में वर्ष २०३० तक प्रत्येक बच्चे को इस नीति के अंतर्गत नामांकित (रजिस्टर्ड) कर उसे अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा देने का लक्ष्य रखा गया है। इसमें ३-१८ वर्ष के आयु वर्ग में बच्चों को ५+३+३+४ के नए प्रारूप में शिक्षा दी जाएगी। इस प्रारूप में शिक्षा १५ वर्ष की होगी जिसे ३ वर्ष से प्रारम्भ करके १८ वर्षों की आयु तक समाप्त किया जाएगा। १८ वर्षों के बाद बच्चे किसी विशेष शिक्षा वर्ग में दाखिला लेकर अपनी स्नातक और स्नातकोत्तर शिक्षा को पूर्ण कर सकेंगे। अर्थात इसमें महत्वपूर्ण यह है कि अब ६-१८ आयु वर्ग की जगह ३-१८ आयु वर्ग के लिए प्रारूपित होगी। इस शिक्षा प्रणाली में त्रिभाषाई फॉर्मूले को स्वीकार किया गया है तथा बच्चों को प्राचीन भाषाओँ पाली, पर्शियन, प्राकृत तथा अन्य भाषाओँ से भी अवगत करवाया जाएगा, यह वास्तव में सराहनीय है।
नीति अनुसार प्रत्येक राज्य में एक ‘स्कूल नियामक प्राधिकरण’ स्थापित करने का भी प्रावधान है एवं ८०० से अधिक विश्वविद्यालयों को भी एक छतरी के नीचे लाने की बात है। नई शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा बोर्ड एवं राष्ट्रिय अनुसंधान फाउंडेशन की स्थापना को भी इंगित किया गया है। हर बच्चे को शिक्षा उसकी मातृ भाषा/राजकीय भाषा अथवा स्थानीय भाषा में देने के बात की गयी है। छात्रों के बीच गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए प्रभावी संवाद की बात की गयी है। वोकेशनल शिक्षा को भी इस नए शिक्षा प्रारूप में प्रमुखता दी गयी है।
वास्तव में यह शिक्षा नीति बहुत आदर्श लग रहीं है और होनी भी चाहिए। किन्तु वास्तविक समस्या यह है नीति अनुसार कहा गया कि शिक्षा के ऊपर खर्चा बढ़ा कर जीडीपी का ६% कर दिया जाएगा। यह सुनने में जितना अच्छा है,वास्तविकता में उतना ही कठिन। प्रश्न यह है कि इस नई शिक्षा नीति के अवलंबन के लिए जीडीपी का ६% फंडिंग कहाँ से आएगा? साधारण हिसाबी शब्दों में यह राशि १२ लाख करोड़ प्रतिवर्ष होती है। यदि हम पिछले कुछ वर्षों के सन्दर्भ में देखें तो कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आएंगे।
१. वर्ष २०१३-१४ में भारत में केंद्र और राज्य मिलकर शिक्षा पर जीडीपी का ४.१४% खर्च करते थे। इसमें केंद्र का हिस्सा जीडीपी का मात्र ०.६०% था, शेष हिस्सा राज्यों का था।
२. वर्ष २०९-२० में केंद्र और राज्यों ने मिलकर शिक्षा पर जीडीपी का ३.४० % खर्च किया जो की वर्ष २०१३-१४ से गुणात्मक रूप से बहुत ही काम था। इसमें केंद्र का हिस्सा जीडीपी का मात्र ०.४०% था।
३. आज के बजट जीडीपी के सन्दर्भ में जीडीपी का ६% १२ लाख करोड़ होता है किन्तु वास्तविक खर्च केवल ६.८० लाख करोड़ है। १२ लाख के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए ५.२० लाख करोड़ की और आवश्यकता होगी।
४. हक़ीक़त में केंद्र ने पिछले ६ वर्षों में जीडीपी के सन्दर्भ में शिक्षा के आवंटन में १/३ हिस्से की कटौती की है जोकि एक प्रकार से न केवल अप्रत्याशित कटौती है बल्कि शिक्षा नीति के आदर्शवाद या प्रगतिशीलता के एकदम विपरीत है।
सच तो यह है कि कुछ वर्षों से अर्थव्यवस्था की हालत दयनीय है और उसका सीधा असर शिक्षा, स्वास्थ्य और रक्षा बजट पर पड़ ही रहा है। वर्ष प्रति वर्ष इनके बजट में कटौती की जा रही है। नई शिक्षा नीति के हिसाब से केंद्र को कुल १२ लाख करोड़ (जी डी पी का ६%) का एक तिहाई देना चाहिए किन्तु अभी जो केंद्र का आवंटन है वह केवल जीडीपी का ०.४० % ही है ऐसे में यह प्रश्न उभर कर आता है कि इस नई शिक्षा नीति का क्रियान्वयन कैसे होगा जबकि पिछले ६ वर्षों में शिक्षा के बजट में हर वर्ष कटौती हुई है?
शिक्षा-क्षेत्र में काफी समस्याएँ हैं चाहे वह प्राथमिक-शिक्षा हो या उच्च-शिक्षा या फिर ग्रामीण विद्यालयों की दयनीय स्थितियाँ और यही नहीं पढ़ाने वाले शिक्षकों के स्तर के बारे में तो सभी जानते हैं। दूर दराज गांवों में स्कूल नहीं, शिक्षक नहीं, शौचालय नहीं, आवागमन के साधन नहीं, फिर यह शिक्षा नीति के अनुसार कार्य प्रारम्भ भी करें तो उसके लिए आवश्यक वित्तीय संसाधन की व्यवस्था कैसे होगी? केवल राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाने से समस्या का समाधान नहीं होगा। किन्तु फिर भी आशावान तो बने ही रहना है कि केंद्र सरकार नई शिक्षा नीति का क्रियान्वयन सुचारु रूप से करें तो देश के छात्रों का भविष्य सुधार जाएँ,
डॉ सुषमा गजापुरे ’सुदिव’ / दिनेश कुमार वोहरा
(स्तम्भ लेखक वैज्ञानिक,आर्थिक और समसामयिक विषयों पर चिंतक और विचारक है )
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