Published on 08.07.2018 in Navbharat (Hindi)
अक्सर देखा गया है कि हम पहले समस्या का निर्माण करते हैं और फिर जब समस्या विकराल हो जाती है और हमारे अस्तित्व पर संकट आ जाता हैं तब हम हाय-तौबा मचाने लगते हैं। यदि समय रहते ही इसका समाधान ढूंढ लिया जाए तो ठीक वरना मानव सभ्यता को इससे नुकसान होने की पूरी संभावना रहती है। अति किसी भी चीज की अच्छी नहीं होती। यह जानते हुये भी हम आधुनिक यंत्रों का खूप उपयोग करते हैं । वास्तव में इन दिनों हमारी दिनचर्या और आदतों में बहुत बदलाव आया है। आजकल सभी को आरामदायक जीवन की आदत हो गयी हैं। इसलिए न ज्यादा गर्मी बर्दाश्त होती हैं ,न अधिक ठंड। लेकिन वर्तमान में मौसम की गतिविधियां अनपेक्षित होती जा रही हैं। यह सब जलवायु परिवर्तन का परिणाम है।
जलवायु परिवर्तन औसत मौसमी दशाओं के पैटर्न में ऐतिहासिक रूप से बदलाव आने को कहते हैं। पिछले कुछ दशकों से अनअपेक्षित जलवायु परिवर्तनों का हम सबको सामना करना पड़ रहा है। जलवायु की दशाओं में कभी कभार प्राकृतिक बदलाव आते है, तो कभी ये बदलाव मानवीय क्रिया-कलापों से भी हो जाता है। यही कारण है कि कहीं बाढ़, कहीं भयंकर सूखा तो कहीं पीने के पानी की विकराल समस्या का हमें सामना करना पड़ रहा हैं । पिछले कुछ दशकों से वातावरण में आये इन बदलावों से हमारी फसलों के उत्पादन पर भी बुरा असर पड़ा है। विश्व बैंक की एक स्टडी के अनुसार ऐसा अनुमान है कि सन २०५० तक भारत के बहुत बड़े हिस्से में जलवायु में बड़े पैमाने पर नकारात्मक बदलाव होंगे। इसमें मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ उत्तर प्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र, झारखण्ड, हरियाणा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना तथा कुछ क्षेत्रों पर इनका भारी असर पडेगा। भारत की आधी से ज़्यादा जनसँख्या यानि कि ६०-८० करोड़ जनता की ज़िन्दगी अत्यंत विषम परिस्थितियों से होकर गुज़रेगी तथा इस विषम परिस्थिति के उपरान्त बहुत बड़ी संख्या में लोग भयंकर सूखे वाले क्षेत्रों से दूसरे क्षेत्रों की ओर पलायन करेंगे। इन क्षेत्रों में आम तापमान भी कई डिग्री बढ़ जाएगा। ये स्थिति वास्तव में भयावह हो सकती है।
इस विकराल जलवायु परिवर्तन से जी डी पी में २.८% की कमी आने का अनुमान है। कई क्षेत्रों में दैनिक उपभोग की वस्तुओं के सेवन और खपत में १०% से भी ज़्यादा कमी आ जाएगी । जी डी पी में २.८% की कमी का परिणाम ये होगा कि २०५० में भारत में वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन १.१ ट्रिलियन डॉलर अथवा ११०० बिलियन डॉलर कम हो जाएगा।
आइये जलवायु परिवर्तन के कुछ कारणों को जानने की कोशिश करते हैं। ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ जलवायु परिवर्तन पर एक महत्त्वपूर्ण अंतर्राष्ट्रीय समझौता है। इसके अंतर्गत ग्रीनहाउस गैसेस को एक विशेष सीमा तक सीमित रखने पर समझौता हुआ था ताकि वायुमंडल में नुकसान पहुँचाने वाली गैसेस की मात्रा पर अंकुश लगाया जा सके। वो गैसेस जो वायुमंडल में इंफ़्रा रेड विकिरण को सोख लेती हैं या फिर उनको विकीर्ण करती हैं यानि कि बाहर फेंक देती हैं उनको ग्रीन हाउस गैसेस कहा जाता है। इनमें वाष्प, कार्बन डाई ऑक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कार्बन्स, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और ओजोन प्रमुख हैं। ये गैसेस गर्मी को रोक कर रखती हैं जिसके फलस्वरूप वायुमंडल में ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट पैदा होता है। इसी की वजह से भूमंडलीय ऊष्मीकरण या ग्लोबल वार्मिंग जैसी परिस्थितियां जन्म लेती हैं और परिणामस्वरूप मौसम में मूलभूत बदलाव जैसे कि अत्यंत सूखा, अत्यंत सर्दी और बाढ़ जैसी परिस्थितियाँ पैदा होती हैं जो मानव सभ्यता को विनाश की ओर ले जाती हैं। यह विषम परिस्थितियां मानव ने खुद ही निर्मित की हैं।
क्योटो समझौते के उपरान्त २०१५ में बहुत ही महत्वपूर्ण UNFCCC (यूनाइटेड नेशन फ्रेमवर्क ऑफ़ कन्वेंशन ऑफ़ क्लाइमेट चेंज) पर आधारित पेरिस समझौते पर १९२ देशों ने हस्ताक्षर किये। इनमें भारत भी शामिल है। भारत ने उस समझौते को २०१६ में रैटीफाई किया यानि कि इसका पुष्टिकरण भी कर दिया है। पेरिस समझौता क्योटो प्रोटोकॉल की जगह ३१ जनवरी २०२० को लेगा। ग्रीनहाउस गैसेस को सीमित करने की दिशा में पूरे संसार में ये एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कदम है क्योंकि इसके पालन पर लगभग दुनिया की आधी आबादी का अस्तित्व टिका हुआ है। इन अंतरराष्ट्रीय समझौतों के अनुसार सब सदस्य देशों को वायुमंडल में ओजोन लेयर को क्षीण करने वाले पदार्थों पर नियंत्रण करना बहुत ज़रूरी होगा। ये पदार्थ शीत उपकरणों में जैसे कि फ्रिज और एयर कंडीशनर्स में भारी मात्रा में उपयोग किये जाते हैं। इसके अलावा ये अत्यंत हानिकारक पदार्थ जैसे ऐरोसोल्स, पेस्टीसिड्स (कीटनाशक) और अग्निशामक यंत्रो में भी उपयोग किये जाते हैं। इन सब पदार्थों को क्योटो प्रोटोकॉल तथा पेरिस समझौते के अनुसार एक समय सीमा तक समाप्त करना होगा तथा उनके लिए ऐसे पदार्थो का उपयोग करना होगा जो वायुमंडल में ग्रीन हाउस इफ़ेक्ट नहीं पैदा करते हैं।
जरूरत है अब जागने की, वो परिवर्तन लाने की जिनके प्रति हम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिबद्ध हैं। आम नागरिकों को भी इस संकट काल से बचने के लिए पर्यावरण की रक्षा करनी होगी। पेड़ों का कटाव कम करना होगा तथा जल संवर्धन को बढ़ावा देना होगा। यानि कि जितने भी प्राकृतिक संसाधन हमारे पास हैं उनको बहुत सुरक्षित रखना होगा तभी शायद हम आने वाली त्रासदी का सामना कर पाएंगे। अन्यथा हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को केवल जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों के बीच छोड़ जाएंगे। आइये समय रहते हम खुद भी इसे समझे और औरों को भी समझाये और एक स्वस्थ और उन्नत भारतवर्ष का सपना साकार करें।
बढ़िया