Published on 10.06.2018 in Navbharat (Hindi)
मनुस्मृति में उल्लेखित यह वचन आज के परिपेक्ष्य में कुछ अधिक ही संवेदनशील लगने लगे हैं:
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:
अर्थात जहाँ स्त्रियों का सम्मान होता है, उसकी अपेक्षाओं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति होती हैं, उस स्थान, परिवार, समाज और राज्य पर देवता प्रसन्न होते हैं, किन्तु जहाँ ऐसा नहीं होता, वहाँ पर देवता रुष्ट हो जाते हैं एवं सभी कार्य असफल होते हैं। इस वचन द्वारा कहीं न कहीं हमें जीवन में स्त्री के स्थान की महत्ता समझ आ जाती हैं।
वैसे तो संविधान में महिला–पुरुष को समान दर्ज़ा प्राप्त है किन्तु क्या यह वास्तविकता है? यदि यह सत्य होता तो वर्तमान में जो महिला अपराध एवं महिला अत्याचार की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है, उसे हम कैसे अनदेखा कर सकते हैं? या तो आंकड़ें गलत हैं या हमारी मानसिकता ।
ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब महिलाओं पर होने वाले अपराध और दुष्कर्मों की खबर नहीं आती है। चिंता का विषय य यह है कि इन दुष्कर्मों की वीभत्सता उत्तरोत्तर बढ़ती ही जा रही है। कुछ वर्ष पहले का निर्भया काण्ड अभी भी मन मस्तिष्क में ताज़ा है। अभी हाल ही में हुए कई दुष्कर्मों ने हमारे विश्वास को झकझोर कर रख दिया है। छोटी छोटी मासूम बच्चियाँ इस वीभत्सता का शिकार हो रही हैं। क्या ऐसे ही हम “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” अभियान को सफल बनाएंगे?
समझ में नहीं आता ये कैसी मानसिकता का विकास हो रहा है जहाँ एक तरफ नारी सम्मान की बात होती है और दूसरी तरफ समाज के दुश्मन उसे ही दागदार बनाने में लगे हुए हैं। इस वीभत्स मानसिकता को रोकना होगा, हर कीमत पर। अब इस पर सोचने का समय समाप्त हो गया है । अब इस बदलाव को क्रियान्वित करना होगा अगर समाज को और गिरने से बचाना है ।
हमें इस सामाजिक पतन को ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में भी समझना होगा। इतिहास को देखें तो ये पाएंगे कि भारत में महिलाओं की स्थिति सदैव एक सी नहीं रही है। काल, दशा, विचार, शिक्षा और मनोस्थिति के साथ–साथ उनकी स्थितियों में भी क्रमश: परिवर्तन आते रहें हैं। वैदिक काल एवं इतिहास के साथ–साथ चलते–चलते वर्तमान समय तक महिलाओं ने हर क्षेत्र में जहां अपार सफलताएँ अर्जित कर अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाया हैं किन्तु कहीं न कहीं वर्तमान स्थिति को देखते हुये लगता है कि उनकी स्थिति आज भी बहुत संतोषजनक नहीं हैं। यदि वास्तव में महिला सशक्त है तो पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाने की होड़ क्यों? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि महिला पुरुष के बराबरी के दर्ज़े पर नहीं है ? अगर ये सत्य होता तो फिर नारी का संघर्ष अब तक क्यों चल रहा है?
आज के संदर्भ में हम देखें तो पाएंगे कि स्त्री–मुक्ति आंदोलन, नारी–अस्मिता, स्त्री जागरुकता आंदोलन, अत्याचार निर्मूलन, जैसे कई आंदोलनों की समाज में भरमार है किन्तु उसके पश्चात भी महिला अपराधों में कमी नहीं आयी है,अपितु अपराधों की संख्या में उत्तरोत्तर बढ़ोत्तरी हो रही हैं।ऐसे में समाज, परिवार, राज्य एवं देश के परिपेक्ष्य में महिलाओं के सम्मान की स्थिति पर एक प्रश्नवाचक चिन्ह लग गया है। यह तब जब देश में स्त्री शिक्षा, दहेज, बाल विवाह, महिला उत्पीड़न, समान अधिकार, एवं बलात्कार जैसे अपराधों के लिए कठोर दंड का प्रावधान हैं। भारतीय दंड संहिता की धारा 294, 304, 306, 313, 314, 315, 316, 318, 354, 363, 364, 366, 371, 372, 373, 376, 506 जैसी और भी कई धाराओं के अंतर्गत महिला अपराधों के विरूध्द कठोर दंड की व्याख्या की गयी है। जिसके आधार पर न्यायालय द्वारा समय–समय पर केस चला कर अपराधियों को कठोर कारावास भी दिया जा रहा हैं।किन्तु बढ़ते अपराधों की गति और न्यायालय में चल रहे मुकदमों की गति में बहुत अंतर दिखाई दे रहा हैं।मुकदमों की गति बहुत ही धीमी है जबकि अपराधों में वृद्धि लगातार हो रही हैं।
अब यहाँ ये सोचना होगा कि इस परिपेक्ष्य में केंद्र शासन, राज्य शासन , न्यायालय और समाज की क्या भूमिका होनी चाहिए। केंद्र शासन, राज्य शासन, पुलिस एवं न्यायालय को चाहिए की वें महिला अपराधों को रोकने हेतु कठिन से कठिन कानून बनाए एवं उसका क्रियान्वन भी शीघ्र अति शीघ्र करें। कठोर दंड के प्रावधान से अपराधियों में भय व्याप्त होगा और महिलाएं सुरक्षित रहेंगी। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि पुलिस, न्यायालय, कठोर दंड यह तो महत्वपूर्ण है ही किन्तु कहीं न कहीं हमें सामाजिक मानसिकता को भी बदलना होगा। शिक्षा क्षेत्र में पाठशालाओं एवं महाविद्यालयों में नैतिक शिक्षा, मूल्य आधारित शिक्षा को सम्मिलित करना अत्यंत आवश्यक हैं क्योंकि शिक्षा के उचित माध्यम द्वारा ही हमें उच्च पोषण प्राप्त होता है, एक और महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि हम अपने परिवार के पुरुषों एवं लड़कों को यह संस्कार अवश्य देना चाहिए कि जिस तरह उनके लिए उनकी माता, बहन, पुत्री का सम्मान उनके लिए सर्वोपरि है उसी तरह दूसरों की माताएँ, बहनें एवं पुत्रियाँ भी उनके सम्मान की अधिकारी हैं, यह भाव हम सब भारतवासियों में आना अनिवार्य हैं तभी हम बढ़ते महिला अपराधों पर अंकुश लगा पाएंगे।सदचरित्र, संस्कार एवं नैतिकता केवल लड़कियों और महिलाओं के लिए ही नहीं अपितु यह समाज के सभी वर्गों के लिए आवश्यक होना चाहिए।
हमें महिलाओं को लेकर एक स्वस्थ एवं सम्माननीय मानसिकता को धारण करना होगा और महिलायेँ जिस सम्मान के योग्य है उन्हें वह देना ही होगा। केवल चर्चाएं, बहस, नियम, आंदोलन और मोमबत्तियाँ जलाने मात्र से कुछ नहीं होगा, अब समय है कथनी और करनी में एकरूपता लाने का और इसी के साथ ही शुरुवात स्वयं से करने की हिम्मत भी करनी होगी। तभी एक स्वस्थ समाज,परिवार और स्वस्थ देश की कल्पना सार्थक होगी। नारी तभी समाज में अपने उचित स्थान को प्राप्त कर पाएगी जब हम इस सामाजिक खोखलेपन पर अंकुश लगा पाएंगे।
Leave a Reply